*व्यंग्य* *जुगाड़ू छपास*

लेखक आर के तिवारी सागर

*आजकल हर क्षेत्र में छपास का रोग फैल हुआ है हर कोई थोड़ा कुछ कर बहुत कुछ चाहता है और सुर्खियों में बना रहने के लिए कैमरे के सामने आकर अखबारों में छपता रहना चाहता है असल में इसी से जुड़ा एक वाक़या मेरे सामने आया।*

मैं एक दिन रामलाल जी के यहाँ बैठा था तभी हमारे शहर के एक स्वनामधन्य तथाकथित साहित्यकार जी आए और आते ही गुरूवर से बोले कि आप मेरे ऊपर कोई कार्यक्रम क्यों नहीं करते! सुनकर गुरूवर ने अपनी हंसी नियंत्रित कर चेहरे पर मुस्कान लाते हुए उनसे कहा आप अपने ऊपर कौन सा कार्यक्रम कराना चाहते हैं? जिस पर वे बोले यह तो आपको ही देखना है! मैं वर्षों से शिक्षा, साहित्य,समाज सेवा, सांस्कृतिक और अनगिनत आयोजनों से जुड़ा हुआ हूँ। कई देशव्यापी संस्थाओं का अध्यक्ष हूँ। कई भाषाओं का ज्ञान है। अखबारों में छपता रहता हूं। शिक्षा ,समाज में भी बहुत सम्मान है। व्यास हूँ , शहर में विख्यात हूं और आप कह रहे हैं मुझ पर कौन सा कार्यक्रम करूँ!
सुनकर गुरूवर मुस्कुराते हुए बोले यार! आप समझते क्यों नहीं! भाई मैं इस तरह के कार्यक्रम नहीं करता। हमारी संस्था साहित्यिक आयोजन करती है, उन साहित्यकारों का सम्मान करती है जिन्होंने इस क्षेत्र में कोई उत्कृष्ट कार्य किया है,उनकी पुस्तकें प्रकाशित हुई हों।
तब वे बोले मैंने आपको अभी बतलाया कि मैं साहित्य की अनेक संस्थाओं का अध्यक्ष,संयोजक हूँ लेकिन अपनी संस्थाओं की बजाय आपकी संस्था से ही कार्यक्रम कराना चाहता हूं। तब गुरुवर बोले भाई! आप जिन संस्थाओं का बता रहे हैं उनके बारे में मैं तो क्या शहर में कोई जानता भी नहीं।अरे भैया उन संस्थाओं का कभी कोई कार्यक्रम तो सुनने-देखने तो मिलता! हाँ, फिर भी यदि आप समाज में अपने आपको प्रदर्शित करने की सोच रहे हैं कि लोग आपकी विशेषताओं को जाने, शहर आपको पहचाने कि आपकी क्या-क्या विशेषतायें हैं तो इस विषय पर संस्था की बैठक में विचार कर सकता हूँ। संस्था के नियमों के अनुसार पात्र साहित्यकारों पर ही कार्यक्रम किए जाने का नियम है।
तब वे उतावले होते हुए बोले हाँ-हाँ आपको जैसा लगे करें। मैं तो पूरी पात्रता रखता हूं। तब गुरूवर बोले आपने कभी कोई पुस्तक लिखी! कोई भी! चाहे कविता की हो, चाहे नाटक-नौटंकी की हो,चाहे चुटकुलों की हो,चाहे लोक गीत, भजन फिर चाहे वह गज़ल हो या दोहा-सोरठा, व्यंग्य रचनायें हों या कहानियाँ हों यदि ये सब न भी हों तो कोई तुकबंदी ही की लिखी हुई हों! आप मेरे पास लाएं उस पुस्तक के विमोचन की आड़ में मैं आपका ज़लवा कर दूँगा। फिर आपको सब जानने लगेंगे।
गुरुवर की बात सुनते ही वे बोले पुस्तक तो एक भी नहीं छपी पर कुछ कविताएँ जरूर लिखी हुई रखी हैं। सुनते ही गुरूवर बोले बस अब काहे की चिंता! उनमें से फटाफट तीस चालीस स्तरीय और स्वरचित कविताओं का एक संग्रह तैयार करा लो! वे बड़े खुश होते हुए बोले आप देखना मैं मुश्किल से पांच दिन में पुस्तक छपवा लूंगा। मेरे एक शिष्य का प्रकाशन भी है। वह तो दो ही दिन में छाप देगा।
मैं बहुत देर से गुरुवर और उन तथाकथित महान व्यक्तित्व के धनी साहित्यकार महोदय जी को सुन रहा था तो मैं तुरंत बोल पड़ा याने शिष्य को दाम भी नहीं देना पड़ेगें! मेरी बात पर वे मुस्करा दिये।
गुरुवर भी कहाँ चुप रहने वाले थे सो मुझसे बोले यार पंडित जी! आप इन्हें नहीं जानते ये जितने जमीन के ऊपर हैं उतने ही नीचे हैं। बड़ी चालू चीज हैं ये महाशय। शायद गुरूवर के व्यंग्य को वे नहीं समझे या समझकर भी अनजान बने रहे इसलिए अपनी खीसें निपोरने लगे। हँसते नें तो का करते। गुरूवर को का कर लेते ! अपनों मतलब भी तो पूरो करवाने हतो।
तभी मैंने देखा गुरूवर एकाएक सीरियस से हो गये! और उनसे बोले एक बात का ध्यान रखना औरों जैसा नहीं करना। तब वे गुरूवर के चहरे को देखते हुए बोले मैं समझा नहीं आप क्या कह रहे हैं!
गुरूवर मेरी ओर देखते हुये बोले यार पंडित जी इन्हें बतलाइये कि शहर के कुछ रचनाकार हैं जो लंबे समय से अपनी पुस्तकों का विमोचन मेरे माध्यम से कराने का ढोल पीट रहे हैं कि गुरुवर के सान्निध्य में पुस्तक का विमोचन होना है। कई बार प्लान बनाया। और तो और कौन-कौन अतिथि होगें पूरी रूपरेखा तक मैंने बना कर उन्हें दी पर न उनके अतिथियों को ही वक्त मिला और न उनका विमोचन ही आज तक हुआ। सो भइया उनकी तरह सपने न देखें तो अच्छा है,क्योंकि यहाँ हम फुरसतिया नहीं बैठे हैं कि चलो, उनके पास कोई काम नहीं है, सो अपना उल्लू सीधा करा लें।
गुरूदेव की सीधी-सीधी बात सुनकर थोड़ा वे चकरा गये सो तुरन्त संभल कर बोले नहीं-नहीं ऐसा नहीं होगा! एक पुस्तक की बात क्या!मैं तो दो-चार किताबें छपवा लूंगा। सुनकर गुरूवर व्यंग्यात्मक शैली में बोले दो-चार की छोड़ो मियां अबे तुम एकई छपवा लियाओ।
मैंने देखा वे सहित्यकार नकली हंसी हँसते हुए कमरे से बाहर हो गये।
उनके जाने के बाद मैंने रामलाल जी से कहा यार गुरुवर मामला का आय! मेरी बात पर वे आँखें निकालते हुए बोले यार पंडित जी आप का हमेशा निरक्षर की तरह मूर्ख बने रेहो! मैं बोला हमसें कछू ग़लती हो गई का! वे बोले अरे भाई इन्हें अपने ज्ञान सें सब पे छा जाबे को भूत जिंदगी भर सें चढ़ो है। जे चाहत हैं कि हम अखबारों में छपत रैबें। छपास को रोग लगो है इन्हें। करनें-धरनें कछु नईं पर नाम चाहत हैं जमाने में। यार ज़िन्दगी भर कमाया कुछ भी नहीं इन्होंने। कोरी डीगें मारी हैं और चाहत हैं शहर इन्हें साहित्य शिरोमणि कहन लगे। जीवन भर नाय-माय की जुगाड़ करकें अखबार में अपनो नाम,अपनी फोटो मय विशेषताओं के साथ जो भगवान जाने कितने असली हैं प्रकाशित करवा लेत। और सुनो कार्य क्रम भले ही किसी दूसरे का हो पर उसमें ठस जाते हैं और फिर फोटो की लाईन लगवा लेते हैं ” हर्र लगे ने फिटकरी और रंग चोखो” इनको पईसा सोई नई लगत और नाम हो जात। अरे भईया इसके लिए ऐ किसी-किसी को अपना रिश्ते दार तक बना लेते हैं कोई भी रिश्ता कायम कर लेते हैं फिर चाहे वह इनकी बिरादरी का भले ही न हो ए उसकी इतनी तारीफ के पुल बांधते हैं कि “चान्द भी फीका पड़ जाये” और वे बेचारे जिनका कार्य क्रम होता है वे इन्हें सर आखों पर रख लिया करते हैं और फिर इनका उल्लू सीधा हो ही जाता है और ए अपने छपास के काम में सफलता प्राप्त कर लिया करते हैं और फिर दूसरे दिन अखबार में इनकी तस्वीर और नाम छप जाता है ए बड़े ठीट और जुगाड़ू आदमी हैं। अब जे जा चाह रये के एक कविता संग्रह को जुगाड़ कर लेवें, अपन लोगों के बीच विमोचन करा लेहें सो अखबारों में आत्म प्रचार खूब विस्तार से मय फोटो, अरे, उनकी अकेली नहीं मय परिवार की छप जैहैं और खर्चा भी जे खुद ने करहें। कौनऊं पे टोपी धरकें अपनों काम निकाल लेहैं। जा पक्की मानों बड़े जुगाड़ू हैं। हम जानत हैं तुम का जानो। अबई देखियो तीन चार दिन में इनको एक काव्य संग्रह जुगाड़ को “कहीं की ईट कहीं का रोड़ा भानमति ने कुनबा जोड़ा” जैसों हो जै। और तो और विमोचन का पूरा खर्च भी जे किसी न किसी के ऊपर थोप देहें। इनको कछु नहीं लगनें जा मानके चलो, एमें तनक भी संसय नें जानियो।
मैं तो बस गुरूवर को देख रहा था और सोच रहा था कोई कितना भी होशियार बने पर गुरु तो गुरु ही हैं।
समाप्त।
ये लेखक के निजी विचार है (साभार )

Leave a Comment